कुछ बहाने बना तुम चले तो गये ,
किन्तु निकले नहीं तुम हृदय कोर से ।
मैं वहीं बैठ फिर राह तकती रही ,
झूठ मुझको लगा था तुम्हारा गमन ।
एक विश्वास था निज अटल प्रेम पर ,
प्राण ! होगा तुम्हारा पुनर्आगमन ।
मैं इसी आस में हाय ! बैठी रही,
स्यात निकलो कभी तुम उसी मोड़ से ।
किन्तु निकले नहीं तुम हृदय कोर से ।
क्यों मिले थे भला इस तरह टूट कर ,
नीर देना न था प्यास दे कर गये ।
दूर मुझसे गये तो गये किन्तु तुम ,
साथ मेरा हृदय प्राण ले कर गये ।
देह भर श्लथ लिए मैं तड़पती रही..
बाँध फिर क्यों गये तुम प्रणय डोर से ?
किन्तु निकले नहीं तुम हृदय कोर से ।
याद आए न क्या वे समर्पण सभी ,
काश ! गुनते प्रणय की प्रभा पावनी ?
क्या न सोचे कभी हो पृथक चाँद से ,
भग्न कितना रहेगी सतत चाँदनी ?
एक उच्छवास भी क्या न निकला कभी…
सच कहो तुम ! तुम्हारे हृदय पोर से ?
किन्तु निकले नहीं तुम हृदय कोर से ।
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली