ये जरूरी तो नही सब आपके अनुरूप हो,
छांव माँगों, छाँव पाओ धूप माँगो धूप हो ।
एक थाली में इधर देखो निवाला भी नहीं,
हो नहीं हैरान उनकी प्यालियों में सूप हो।
होशियारी से जरा मिलना ज़माने में मगर,
आस्तीनों में लिए बन्दूक वह बहुरूप हो।
आ रहे हैं शहद की चम्मच लगाए जीभ पर,
बात हो दो-टूक चाहे रंक हो या भूप हो।
पेट बांधे लोग कितने सो रहे फुटपाथ पर,
भूख जितनी रोटियां लो, चाह ना विद्रूप हो।
इस बदलते दौर में कुछ नही वैसा बचा,
कूप के मंडूक राघव, हू-ब-हू, प्रतिरूप हो।
– भूपेन्द्र राघव, खुर्जा , उत्तर प्रदेश