तिक्त शब्दों में तुम्हारे, जोड़ कुछ विष पंक्तियों को ,
सद्य तुमको अर्घ्य दूँगी, शब्द से ही मैं तुम्हारे ।
भाव मेरी व्यंजना के, दर्प वश तुमको न भाते
बोध मर जाता तुम्हारा, काव्य को जब खुद लजाते ।
तीर व्यंगों के चलाते , किन्तु मुझ पर बिन विचारे ।
सद्य तुमको अर्घ्य दूँगी, शब्द से ही मैं तुम्हारे।
चाहती तुम भूल मेरे , पृष्ठ तक बिल्कुल न आना ।
व्यंजना अम्लान मेरी , धूल इसमे मत मिलाना
साधना को वंचना कह, मूढ तुम-सा ही प्रचारे
सद्य तुमको अर्घ्य दूँगी, शब्द से ही मैं तुम्हारे।
काव्य का प्रतिमान क्या है , मापनी है क्या तुम्हारी ?
क्या तुम्हारी सोच तक ही, काव्य सरि बहती बिचारी ?
या कहो फिर काव्य नभ के, मात्र तुम ही हो सितारे ?
सद्य तुमको अर्घ्य दूँगी, शब्द से ही मैं तुम्हारे।
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली