आज भी जल गई
एक बेटी जिंदा
और हम कहते हैं
सुरक्षित है हमारी बेटियां
परंतु कहां पर ?
न घर में ,न बाहर
कसूर क्या था उसका?
केवल इतना,उसने न बोला
कितनी तड़पी होगी?
कितनी झुलसी होगी?
तन तो जला ही
मन भी हुआ क्षत-विक्षत
सिहर उठते हैं हम
हल्की सी चिंगारी से
वह तो लपटों में जिंदा जली
कोई जवाब नहीं है हमारे पास?
समय है आत्ममंथन का
कहां जा रहा है समाज?
आज भी मुँह बाए खड़ा
मन में एक प्रश्न है आज
चली गई एक और निर्भया
झकझोर कर हमें
कब तक जलेगी बेटियां
इस सुशिक्षित समाज में?
– रेखा मित्तल, सेक्टर-43 , चंडीगढ़