रश्मियां तेरे अधर की,
वंद्य हैं ,मैंने कहा था ।
किन्तु जग यह कह रहा है,
उफ ! तुम्हारे प्यार में मैं…… ।
मात्र इतना है कि मुझको,
मान ,यश,पद हैं न प्यारे ।
हाँ ! गगन के किन्तु चाहूँ ,
चाँद तारे हों तुम्हारे ।
सोचता ये जा रहा बस,
मैं प्रमन सरि के किनारे ।
जड़ प्रकृति भी औ विहग, मृग,
मानते मझधार में मैं ।
उफ ! तुम्हारे प्यार में मैं ।
चेतना से अद्य मेरी,
गूंजते यदि प्रीत के स्वर ।
जो समझना लोग समझें,
ईश ने यह है दिया वर ।
क्या तुम्हें भी स्नात करता,
मौन मेरा प्रेम निर्झर ।
और इससे कृत्य पावन,
क्या करूं संसार में मैं ?
उफ ! तुम्हारे प्यार में मैं ।
हूँ न बिल्कुल अंतरण में,
रंच भी मैं दक्ष जग-सा ।
औ कुटिलता का न लेता,
भूल कर भी पक्ष जग-सा ।
स्वार्थ रति के गीर्द घूमूं
है न मेरा कक्ष जग-सा ।
वंचनाधृत सौख्य के हित,
हूँ न छल व्यापार में मैं ।
रश्मियां तेरे अधर की,
वंद्य हैं,मैंने कहा था ।
किन्तु जग यह कह रहा है,
उफ ! तुम्हारे प्यार में मैं ।
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका , दिल्ली