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तुम्हारे प्यार में – अनुराधा पाण्डेय

रश्मियां तेरे अधर की,

वंद्य हैं ,मैंने कहा था ।

किन्तु जग यह कह रहा है,

उफ ! तुम्हारे प्यार में मैं…… ।

 

मात्र इतना है कि मुझको,

मान ,यश,पद हैं न प्यारे ।

हाँ ! गगन के किन्तु चाहूँ ,

चाँद  तारे हों तुम्हारे ।

सोचता ये जा रहा बस,

मैं प्रमन सरि के किनारे ।

जड़ प्रकृति भी औ विहग, मृग,

मानते मझधार में मैं ।

उफ ! तुम्हारे प्यार में मैं ।

 

चेतना से अद्य मेरी,

गूंजते यदि प्रीत के स्वर ।

जो समझना लोग समझें,

ईश ने यह है दिया वर ।

क्या तुम्हें भी स्नात करता,

मौन मेरा प्रेम निर्झर ।

और इससे कृत्य पावन,

क्या करूं संसार में मैं ?

उफ ! तुम्हारे प्यार में मैं ।

 

हूँ न बिल्कुल अंतरण में,

रंच भी मैं दक्ष जग-सा ।

औ कुटिलता का न लेता,

भूल कर भी पक्ष जग-सा ।

स्वार्थ रति के गीर्द घूमूं

है न मेरा कक्ष जग-सा ।

वंचनाधृत सौख्य के हित,

हूँ न छल व्यापार में मैं ।

रश्मियां तेरे अधर की,

वंद्य हैं,मैंने कहा था ।

किन्तु जग यह कह रहा है,

उफ ! तुम्हारे प्यार में मैं ।

– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका , दिल्ली

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