मैं जानता हूँ !
मेरे लिए तुमसे बढ़कर कोई न था,
मैं सदियों से तुम्हारे साथ प्रेम में था,
मगर तुम बेखबर रही मुझसे।
मैं अनवरत तुम्हे सोचता रहा,
अपलक तुम्हे निहारता रहा,
जीता चला गया ये तन्हा ज़िंदगी,
मगर तुम बेखबर रही मुझसे।
मैं प्रेम में रहा समर्पित हमेशा,
मुसलसल दिन-रात सोचता रहा,
तुम्हारी बेपरवाही के लिए,
मगर तुम बेखबर रही मुझसे।
उरअंतस के मध्य अचानक,
उभर आई इक धुंधली सी तस्वीर जिसे उरतल तक ढूँडा,
सोचता रहा जाते जाते कुछ तो कह जाते,
मगर तुम बेखबर रही मुझसे।
तुम्हारा अहसास, तुम्हारा स्पर्श दिलाता रहा,
जब भी कभी तन्हा होता है निराश दिल,
लिपट जाता हूँ तेरी यादों से न बिछुड़ने के लिए।
मगर तुम बेखबर रही मुझसे।
– विनोद निराश, देहरादून