बढ़ते ही जा रहे हैं आजार जिंदगी के,
लगते नहीं है अच्छे आसार जिंदगी के।
इक शोख सी ग़ज़ल का उन्वान खो गया ज्यों,
फीके से हो चले हैं अशआर जिंदगी के।
मुश्किल सवाल सारे कंधो पे लादकर मैं,
नखरे उठा रहा हूँ दुश्वार जिंदगी के ।
गुरबत से तंग आकर रूठी हुईं हैं खुशियाँ,
खोने लगे हैं मानी त्यौहार जिंदगी के।
उधड़े हुए हैं रिश्ते कितना रफू करूँ मैं,
चुभते हैं ‘फ़िक्र’ अब तो गमख्वार जिंदगी के।
– विनीत मोहन ‘फ़िक्र सागरी’, सागर, मध्यप्रदेश