ले तुम्हें परिरम्भ में बैठा रहूं मैं ,
भाल पर रख दूँ सहज निक्षण निशानी,
उँगलियों को चूम लूँ सौ बार रह रह,
स्वप्न मेर हो रहे हैं आसमानी।
चूड़ियों के नौ वलय घेरे खड़े हैं,
नर्म नाजुक वर्तिका-सी दो कलाई ,
चाहता हूँ वो बनें गलहार मेरा,
वार दूँ मन, दूँ तुम्हें यह मुँह दिखायी।
रात से आये सुबह फिर शाम तक भी,
कुन्तलों की छांव में ही हो बसेरा,
आंख तारे, चंद्र चेहरा, भाल सूरज,
सांस परिमल, रात जुल्फें, लब सवेरा।
जिंदगी की नाव की पतवार मेरी,
आएंगे कितने भँवर पर पार होंगे,
आँख मेरी स्वप्न तेरे, हमसफ़र ओ,
परवरिश पाकर यहीं साकार होंगे।
मूंद लो पलकें मुझे इनमें छुपाकर,
जिस तरह मोती छिपता सीप कोई,
तुम रहोगी तो रहे आलोक उर में,
मंदिरों को जगमगाता दीप कोई।
कह रहा हूँ देह का बंधन नहीं है,
रूह मेरी, रूह की चाहत लिये है,
पढ़ सको तो अक्षरों से हीन है यह,
प्रेम के प्रस्ताव का मन ख़त लिए है।
– भूपेन्द्र राघव, गाजियाबाद ,उत्तर प्रदेश