कल कपोल मुख बड़ा, नासिका छोटी अधर अरुण हैं।
दाड़िम दशन, अधर फरकन मृदु, नैना सुभग, सुघड़ हैं।।
मृदुल, मनोहर अंग, देह से हवा गंध तव लाती।
नाशापुट से भरे वदन में, अंगों को मँहकाती।।
अनुपम चमक, गंध है प्यारी, आनन ऐसे दमके।
ज्यों चपला घन बीच चमककर, बार-बार फिर चमके।।
अनुपम छबि, अनुपम आकर्षण, अनुपम तेज तुम्हारा।
अनुपम सुन्दर नैन, भौंह, अधरों की अमृत धारा।।
मस्तक मध्य लसे बिन्दी, है उन्नत गाल तुम्हारे।
सुघड़ नासिका और कर्ण हैं, घन सम केश सँवारे।।
आभा दमक रही चेहरे पर, जब वह धीमे मुस्काई।
मानो छायी अभी क्षितिज पर, प्रात: की अरुणाई।।
कितना कोमल, कितना प्यारा, शांत लिए गहराई।
सृष्टि तुम्ही में सोती, जगती अरु लेती अँगड़ाई।।
खुले अरुण अधरों से दिखती दंत-पंक्ति अति उज्जवल।
आँखें कितनी गहरी मानो तैर रहा इसमें नभ, थल।।
– पं० जुगल किशोर त्रिपाठी, ग्राम व पोस्ट- बम्हौरी,
ब्लाक- मऊरानीपुर,जनपद- झाँसी (उ०प्र०)