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जो ख्वाब बुन रही हूँ मैं – राधा शैलेन्द्र

दर्द क्यूं इस हद तक मुझे ही सताता है

लफ्ज खामोश रहते है

निगाहें बोल पड़ती है

आँसुओं से भींगा तकिया मेरा

मेरे सारे राज कहता है!

 

एक रेगिस्तान जैसे

बूंदों को तरसता है

मेरी आँखें भी तो वही खुशियाँ

पाने को तरसती है!

जाने किन गलियों में छिपा

खुशियों का खजाना है

मैं आईना देखती हूँ

वो पता तेरा बताता है!

 

मुझे चाहत नहीं दोनों जहां

मेरी धरोहर हो

तुम अपना साथ बस

मेरी उम्मीदों से मिला दो न

जो ख्वाब बुन रही हूँ

रखकर तुमको ताने-बाने में

कभी फुरसत मिले तो

आकर उनको तुम भी देखो न!

 

मैं सब कुछ झेल जाऊँगी

हर तूफान से लड़ भी जाऊँगी

तुम कह दो न बस

‘ मेरे हो तुम’

मैं साँसे भी खुदा से

जाकर माँग लाऊंगी!

– राधा शैलेन्द्र, भागलपुर (बिहार)

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