मनोरंजन

ग़ज़ल – प्रॉ.विनीत मोहन औदिच्य

जो न बुझती कभी वो प्यास हूँ मैं,

तेरे दिल का नया आवास हूँ मैं।

 

मेरी आवारगी से अब है निस्बत,

लोग समझें कि तेरा खास हूँ मैं।

 

मुझको मालूम है छाए अँधेंरे,

टूटती जिंदगी की आस हूँ मैं।

 

दूर रहना भले हो तेरी फितरत,

साया बन कर तेरे ही पास हूँ मैं।

 

भीड़ में खुद को अब कैसे तलाशूँ

शब की तन्हाइयों को रास हूँ मैं।

 

कैद कर पायेगा कोई भी कैसे,

गुल की फैली हुई सुबास हूँ मैं।

 

‘फ़िक्र’ की चाहतों में है तू हर दम,

तेरा ए रब सदा से दास हूँ मैं।

– प्रॉ.विनीत मोहन औदिच्य

सागर, मध्यप्रदेश

Related posts

ग़ज़ल – डा० नीलिमा मिश्रा

newsadmin

गजल – रीता गुलाटी

newsadmin

गजल – मधु शुक्ला

newsadmin

Leave a Comment