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प्रेमाग्नि या विरहाग्नि – विनोद निराश

प्रेम न मरने वाला वो सत्य है,

जो कभी असत्य का सहरा ले ही नहीं सकता।

प्रेम तो प्रेम है !

लेकिन सच बताओ……

क्या वास्तव में तुम मुझसे उतना ही प्रेम करती हो ?

जितना मैं तुम से करता हूँ।

बताओ तो सही,…..

क्या तुम भी मेरी भांति… ,

प्रेमाग्नि और विरहाग्नि की वेदना को,

उर तल तक महसूस करती हो।

क्या तुम्हारा प्रेम मतलबी है ?

या तुम मुझसे बिन मतलब के प्रेम करती हो ?

इस रहस्य को, मैं सदियों से खोज रहा हूँ ।

ना मैंने तुम्हें देखा है, न तुमने मुझे,

किन्तु स्वप्नों को साकार करने के लिए ,

मैं तुम तक पहुंचना जरूर चाहता हूं ।

क्यूंकि जिस प्रेम की डोर से हम दोनों बंधे है ,

उस प्रेम धागे का एक छोर ,

मेरी ख्वाहिशो से बंधा है तो ,

दूसरा छोर तुम्हारे ह्रदय द्वार की दहलीज़ से ।

तुम्हारे निर्मोही मन से ,

मेरी हसरतें जाने क्यूँ निराश होकर लौट आती है।

फिर भी मेरी भावनाएं ,

तुमसे मिलने के लिए,

अनवरत प्रयासरत रहती है,

इस उम्मीद से कि ,

कभी तो तुम्हारा पाषाण ह्रदय, कोमल होगा।

परन्तु जब कभी डरते-डरते,

अपने लोचन खोल अतीत को निहारता हूँ ,

आशा और निराशा के बीच फंस कर रह जाता हूँ।

कभी-कभी तुम्हारा एहसास मुझे छूकर चला जाता है ,

मैं पल भर के लिए आशाओं के पंख लगा कर ,

भावनाओं के अम्बर में विचरण करने लगता हूँ ,

फिर भी धरातल पर खुद को तन्हा ही पाता हूँ।  ,

चक्षुओं को जब बंद करके देखता हूँ तो ,

तुम अपने हाथ में मेरा हाथ पकडे ,

मेरे साथ-साथ प्रेम पथ पर चल रही हो ,

कभी तुम अपने अधरों से मेरे कपोल को स्पर्श करती हो ,

तो कभी अपने उर को मेरे उर पर रख देती हो ,

सच तो ये है……

तुम चाहतों में मेरी, शेष लगते हो ,

ख्वाहिशों में मेरी, विशेष लगते हो।

ज़िंदगी में सुकूं-ओ-विद्वेष बन के  ,

हर्फ़-दर-हर्फ़ मुझे, अशेष लगते हो।

ये अधजली सी ख्वाहिशे ,

ये सुलगते से जज्बात,

ये सिसकती हसरतें ,

आज भी व्याकुल है तुमसे मिलने को।

तुम्ही बताओ……,

ये प्रेमाग्नि है या विरहाग्नि।

– विनोद निराश, देहरादून

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