खेत गली खलिहान, दमकें हुआ विहान,
पूरब से दिनकर की किरणें जो छा गयीं।
चकियों की मीठी तान, उत्तम लगे वो गान,
यादें बचपन की जो हृदय में समा गयीं।
उठे हूक मेरे मन, सिहर उठे ये तन,
बीती बातें कितनी ही फिर से याद आ गयीं।
सोंधी खुशबू माटी की, तख्ती खड़िया पाटी की,
नथुनों में एक बार अब फिर समा गयीं।।
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पर्वों की है धूम-धाम, भाग-दौड़ को विराम,
चंद पल खुशियों के, मिल कर बिताइये।
परिवार में उछाह, पर्व लाते हैं प्रवाह
चार दिन की जिंदगी, स्वर्ग सम बनाइये।
मन मैल रखें नहीं, खुश रहें हर कहीं
रिश्ते सहेजें कैसे, खुद ही दिखलाइये।
बोलने से मत डरें, आगे हो पहल करें,
जीवन के मूल मंत्र, सदैव अपनाईये।
– कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, नोएडा, उत्तर प्रदेश