हिल रहे थे अस्थि पंजर एक जैसे हो गये।
पा गये वो देव मंजर एक जैसे हो गये।
आज देखा लड़ रहे दोनो धनी बनने के लिये।
लूट कर दोनो ही बंजर एक जैसे हो गये।
डूब कर नफरत में पागल आज दोनो हो लिये।
काटने को तेज खंजर एक जैसे हो गये।।
खिलती थी आरजू भी संग रहकर आज तो।
हो गये बीमार पिंजर एक जैसे हो गये।
दर्द सहना ऋतु पढे ना अब तो जुदाई का कभी।
दूर.. होकर यार पंजर एक जैसे हो गये।
– रीतू गुलाटी ऋतंभरा, चंडीगढ़