मनोरंजन

बदला ढंग समाज का – कर्नल प्रवीण त्रिपाठी

(बैसवारी में एक गीत का प्रयास)

ढँग बदलि रहैं सब मनइन के, पहिले जइसन दिनु-राति कहाँ।

धीरे-धीरे सबु बदलि गवा, इंसानन मा जजबाति कहाँ।

 

माटी कै सोंधी खुशबू का, सगरे जन बिल्कुल भूलि रहै।

अब बास उठै करखानन ते, मजबूरी मा सब सूँघि रहै।

गर्दा-गुबार बैचैन करै, तरसैं सब साफ हवा खातिन,

हरियारी पहिले जइस रहै, दुनिया मा आजु देखाति कहाँ।

ढँग बदलि रहैं सब मनइन के, पहिले जइसन दिनु-राति कहाँ।1

 

बदलीं फसलन की किस्में जब, बीजु बनै करखानन मा।

गोबर की खाद बिसारि सबै, परै रसायन ख्यातन मा।

छिनकें जहरीलि दवाइन का, खर-पतवार हटावे का,

अब देसी तौर तरीकन कै, भइया कउनौ अउकाति कहाँ।

ढँग बदलि रहैं सब मनइन के, पहिले जइसन दिनु-राति कहाँ।2

 

पहिरावा बदले चउगिर्दा, बंडी-धोती भूलि गए।

लंहगा चुनरी ओढ़नी छूटीं, जींस टॉप पा फूलि गए।

घूँघट कै अब अउकात नहिन, काफी बित्ता भर चिंदी,

योहु फइसन जाय कहाँ ठहरी, जब पता नहिन सुरुआति कहाँ।

ढँग बदलि रहैं सब मनइन के, पहिले जइसन दिनु-राति कहाँ।3

 

गिटपिट-सिटपिट सब बात करैं, अपनी भाषा अब बिसरी।

ब्रज-हिंदी-उर्दू-अवधी ते, अँगरेजी जादा निखरी।

सबका लागति अब सरम बड़ी, अपनी बोली ना ब्वालैं,

परदेसी बोली ब्वालै मा, लोग भला सरमाति कहाँ।

ढँग बदलि रहैं सब मनइन के, पहिले जइसन दिनु-राति कहाँ।4

 

ढँग बदलि रहैं सब मनइन के, पहिले जइसन दिनु-राति कहाँ।

धीरे-धीरे सबु बदलि गवा, इंसानन मा जजबाति कहाँ।

– कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, उन्नाव , उत्तर प्रदेश

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