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छपने के दंश (व्यंग्य) – डॉ. नन्दकिशोर

neeerajtimes.com- आजकल जब से छपने लगे हैं, तब से मुवां कोई न कोई व्हाट्सएप ग्रुप या फेस बुक पर मुझे अपने साथ जोड़ लेता है। वैसे छपने का कोई झंझट अपन के साथ नहीं है, अपन तो पहले भी जनसत्ता में श्रद्धेय प्रभाष जोशी के सम्पादकत्व में आठ वर्ष तक सम्पादकीय पृष्ठ में छपते ही रहे हैं। तब कोई स्पर्श मोबाइल का ज़माना नहीं था। प्रचार प्रसार का कोई माध्यम नहीं था।  फिर भी बता सकें कि देखो राष्ट्रीय स्तर के नामी-गिरामी समाचार पत्र में छप रहे हैं। राम झरोखे बैठ के, दुनिया मेरे आगे, चौपाल, आदि स्तम्भो में खूब छपे हैं साहब!

अब छप ही रहे हैं, तो लोग पूछ भी रहे हैं कि रोज ही छपते हो भई। क्या पूरा समाचार पत्र घराना ही खरीद लिए हो का ? ना ना भाई हमार ऐसी बिसात नाहीं। हम तो भक्तन के भक्त हैं बस और कछु नाही। “सन्तन को सीकरी सों कहाँ काम।’ एक मित्र ने कहा यार ! लिखता तो मैं भी अच्छा ही हूँ, पर कोई सम्पादक लाइन देता ही नहीं है। मेल भी करता हूँ, पर उधर से कोई कानाबाती नहीं होती। सम्पादक को फोन करता हूँ तो मियां का मिजाज देखो कि फोन ही नहीं उठावत है। आग लगो ऐसे छपने के। इसलिए मैंने तो लिखना ही बंद कर दिया। मैंने कहा अच्छा किया आपने। कहाँ का झंझट। उसने कहा पर यार यह तो बताओ तुम तो रोज छपते हो साथ ही पत्नी भी एक ही पृष्ठ पर।

मैंने कहा आपको ईर्ष्या क्यों होती है, जो खुद नहीं छप पाते हो तो जलने ही लगे। कुछ दम होगा हमारे लिखन में। इसलिए रोज छपते हैं, तुम्हें क्या ?

उसने कहा भाई! मेरी एक रचना तो छपवा दो यार। मैं आपका अहसानमंद रहूँगा। या सम्पादक जी के व्यकितगत नम्बर ही दे दो मैं आपके रेफरेंस से बात कर लूँगा।

मैं स्वगत में सोच रहा हूँ, यदि मैंने नम्बर दिए तो साला चिकनी चुपड़ी बातों से मेरा भी पत्ता साफ करवा देगा। मैंने कहा यार मैं तो मेल कर देता हूँ। सम्पादक के नम्बर तो मेरे पास भी नहीं है। वह बोला, पर यह तो बताओ यार! कितने पैसे देते हो छपने के? या किसी राजनेता की पहुँच से,,,,,? कोई केंद्रीय मंत्री का जुगाड़-तुगाड । मैंने कहा भाई इनमें से कोई विकल्प नहीं है। मैंने उससे पूछा कितना पढ़ते हो? कौन सी पत्र-पत्रिकाएँ मंगवाते हो? उसने कहा लिखने वाले थोड़े ही पढ़ते हैं, मैं तो साहित्यकार हूँ न। तो मतबल यह हुआ कि साहित्यकार को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं। वह तो जन्मजात साहित्य लेकर पैदा हुआ है, भला अब उसको पढ़ने की क्या आवश्यकता ! क्या लिखते हो ?

गीत, ग़ज़ल, और कविताएँ । वाह यार अच्छा। कुछ गद्य लिखते हो?

उधर अपना दखल नहीं है।

जी! पर कवि की कसौटी तो गद्य ही है । होगी पर अपुन को क्या लेना-देना। यार बेरोजगार हूँ, तो कवि बन गया। सोचता हूँ कि कोई कविताएँ छप जाए, तो हजार-दो हजार का जुगाड़ हो जाए। मैंने कहा अब आयी बात समझ में। समूची व्यवस्थाएँ अर्थ के इर्द-गिर्द घूमती है। साहित्य, राजनीति, समाज, धर्म आदि को अर्थ प्रभावित करता ही है। तो आप बेरोजगार हैं और कविता में अपना रोजगार ढूँढते हो। अरे भाई! पहले रोटी का जुगाड़ करो, तब कविता के बारे में सोचना। चाँद में रोटी की कल्पना वैसे ही नहीं की गई। अब कबीर साहब का ज़माना लद चुका है, जो कहते थे- “जो घर जारे आपने चले हमारे साथ।” भाई साहित्य-कर्म घर जारे का कर्म है। अब कोई साहित्य अकादमी तक आपकी पहुँच हो तो, यह कार्य करो। पहले किताब छपवाओ, उसका विमोचन करो, विमोचन में चाय-नाश्ता या भोजन करवाओ। अखबारों में छाओ। फिर अकादमी के ज्यूरी के सदस्यों तक पहुँचो, तब कहीं पार पड़ेगी। इतनी बातों को सुनकर वह चुप हो गया।   – डॉ. नन्दकिशोर महावर कोटा (राज.) फोन नंबर – 9413651856

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