वो इश्क़ सा हसीन हुआ जाता है,
ख्याल जिसका हर पल आता है।
सोचा कर दूँ इज़हारे-वफ़ा मगर,
डर तेरी नाराज़गी का सताता है।
तेरी ये अदा सदमे से कम नहीं,
क्यूँ दांतों तले दुपट्टा दबाता है।
किसी रोज़ मिल जा हकीकत में,
ख्वाब में तो हर रोज़ बुलाता है।
क्यूँ लेते हो इम्तिहाने-मुहब्बत,
अपनों को कौन आजमाता है।
मैं तुझसे बेखबर नहीं हूँ मगर ,
क्या हक़ कोई और जताता है।
दिल कहता है कुछ कह दूँ पर,
आईना मुझे मेरी उम्र बताता है।
एक बार तो कर तसव्वुरे-निराश,
जो मुद्दत से आवाज़ लगाता है।
– विनोद निराश , देहरादून