मैं दूर किसी जजीरे पर तन्हा बैठा,
तुम्हारा ही तसव्वुर कर रहा था,
कि अचानक एक हवा का झौका,
सौंधी सी खुश्बू से लबरेज़,
जैसे मेरे ख्यालों से टकरा गया हो।
जैसे कोहरे से भरे दिन में,
उजाले की एक रश्मि हौले से,
आँगन में आ धमकी हो,
और आँखे उसे मुसलसल देख रही हो,
जैसे कि लम्बा इंतज़ार ख़त्म सा हो गया हो।
कभी वक़्त बेवक़्त तेरी यादों का,
जिहन में बेसाख्ता आ जाना,
जैसे सावन की बूंदा-बांदी,
दिल की जमीं को गीला सा कर गई हो,
और अवसादित मन हर्षित हो गया हो।
दिन और रात के बीच होता द्वंद्व,
एकांत और सघनता का मिटता हुआ भेद,
तेरी आमद को तरसते व्याकुल लोचन,
और जैसे सन्नाटे में आ गई हो तुम,
मेरा ख्याल यथार्थ हो गया हो।
सर्दियों की सुनहरी धुप की नरम चादर सी,
जैसे बिछ गई हो तुम,
मेरे ख्यालों के उदास आँगन में ,
और गुलाबी ठण्ड कर रही हो पुलकित मुझे,
जैसे कोई शुष्क भूखण्ड हरा हो गया हो।
तेरे यूँ आगमन से,
सपनो को पंख से लग गए हो जैसे,
अनवरत दौड़ने लगा मन पंछी,
कलरव करने लगा निराश मन ,
जैसे सदियों का सफर लम्हों में तय हो गया हो।
– विनोद निराश, देहरादून