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अतिक्रमण महिषासुरों का बढ़ा – प्रियदर्शिनी पुष्पा

तोड़ कर अबला बेचारी की व्यथा,

शक्ति बनकर सिंह वाहन धार लो।

अतिक्रमण महिषासुरों का फिर बढ़ा,

रौद्र काली बन उसे संहार दो।

 

स्वर्ण-मृग का रुप ले मारीच देखो,

अब न कोई जानकी फिर से छले,

द्विज दसानन के अहं के सामने,

दृष्टि को ढकना पड़े नहीं तृण तले।

 

मुक्त कर दो दानवों से ये धरा,

संकल्प बल से दुर्गे नव अवतार लो।

अतिक्रमण महिषासुरों का फिर बढ़ा.

रौद्र काली बन उसे संहार दो।

 

दुष्ट दुःशासन का भारी भीड़ जन्मा,

नारियों की स्मिता खतरे में दिखते।

हर-घरों में एक कौरव वंश बैठा,

चौक चौराहों पे शकुनि पाश धरते।

 

क्यों पुकारें कृष्ण को लाचार होकर,

भूषणों को शस्त्र सा अब धार लो।

अतिक्रमण महिषासुरों का फिर बढ़ा,

रौद्र काली बन उसे संहार दो।

 

प्रेम ममता की अलौकिक मुर्त तुम,

पर कुचाली-अधम अवनी पर अड़े।

राह के अवरोधकों को तोड़ कर,

भीत नव प्रतिकूल बन हो जा खड़े।

 

मान-मर्दन अब न हो प्रतिपालिके,

दनुज-दल को शब्द का हुंकार दो।

अतिक्रमण महिषासुरों का फिर बढ़ा,

रौद्र काली बन उसे संहार दो ।

– प्रियदर्शिनी पुष्पा, जमशेदपुर

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