भेद जुबां के मैं खोल न पाया,
दिल की बात मैं बोल न पाया।
सब कुछ किया उल्फत में तेरी,
मन तेरा कभी टटोल न पाया।
कभी चले थे साथ मिलके मगर,
खामोश रहा कुछ बोल न पाया।
किया जो इश्क़ मैंने इक तरफ़ा,
उनकी वफ़ा का मोल न पाया।
हुई जो रुखसत वक्त-ए-शाम,
शब् भर जुबां खोल न पाया।
मैं बेगैरत हुआ जमाने में क्या?
इश्क़ मेरा वो भी तौल न पाया।
तन्हा हुआ निराश तो हुआ मगर,
भेद जुबां के कभी खोल न पाया।
– विनोद निराश, देहरादून