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ग़ज़ल – विनोद निराश

भेद जुबां के मैं खोल न पाया,

दिल की बात मैं बोल न पाया।

 

सब कुछ किया उल्फत में तेरी,

मन तेरा कभी टटोल न पाया।

 

कभी चले थे साथ मिलके मगर,

खामोश रहा कुछ बोल न पाया।

 

किया जो इश्क़ मैंने इक तरफ़ा,

उनकी वफ़ा का मोल न पाया।

 

हुई जो रुखसत वक्त-ए-शाम,

शब् भर जुबां खोल न पाया।

 

मैं बेगैरत हुआ जमाने में क्या?

इश्क़ मेरा वो भी तौल न पाया।

 

तन्हा हुआ निराश तो हुआ मगर,

भेद जुबां के कभी खोल न पाया।

– विनोद निराश, देहरादून

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