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डरावनी फिल्मों का रहस्य (व्यंग्य) – विवेक रंजन श्रीवास्तव

Neerajtimes.com – हारर फिल्मों में डर का उत्पादन एक फैक्ट्री की तरह होता है-एकदम फॉर्मूला बेस्ड डर, जैसे स्कूल में पीरियड के लिए घंटी बजते ही सारे बच्चे अनुशासन में आ जाते थे, वैसे ही इन फिल्मों में डराने के लिए पत्तों की “सरसराहट” और बिजली की कड़कड़ होती है। निर्देशक की सोच किसी भूतिया हवेली में जाती है, वहां कैमरा पहुंचते ही पत्ते  सरसराने लगते हैं । दरवाजा चूं चरर चूं की आवाज करता है और प्रकाश मद्धिम होता है, मकड़ी के जाले, धूल बोनस में मिलते हैं, पर एक चौकीदार हवेली में जाने किसकी तीमारदारी के लिए सुलभ मिलता है।

भूत का भय भूत से बड़ा होता है।  डर ही पैदा करना  है , तो सीधे भूत को सामने लाइए, ये पेड़ों में लटकाकर भूत को सजा देने  की क्या तुक है?

 

और बारिश, हर भूतिया कहानी में बारिश  होती ही है? क्या भूतों का मौसम विभाग से कोई अनुबंध है? जहां डर की आवश्यकता हो, वहां तुरंत “घनघोर घटा” , आंधी आ जाती है। बिजली गायब हो जाती है और आती है, व्हाया आसमान , लरजती चमकती कड़कती है,  जैसे किसी पुराने बिजली विभाग के कर्मचारी ने आसमान में एक्स्ट्रा ओवरटाइम लगाया हो।

हारर फिल्में एक खास ध्वनि प्रभाव पर जीती हैं।

साउंड इंजीनियर के ट्रेक फिक्स हैं,  दरवाजा के पल्ले खोलते ही वह चरमराता है, बैकग्राउंड में पायल के घुंघरू छनकाते सफेद वस्त्रावृत महिला दूर जाती दिखती है ।

इतने पर भी जब समझदार दर्शकों के रोंगटे खड़े नहीं होते तो किसी चमगादड़ को अचानक  उड़ाना पड़ता है।  साउंड इफेक्ट दर्शक में डर भरने का काम करता है। इस मुकाम के आते आते फिल्म समीक्षक दस में से कितने स्टार देने हैं , तय कर चुकते हैं ।

हर हारर फिल्म में एक कहानी श्लोक की तरह दोहराई जाती है। “पचास साल पहले इस हवेली में एक साध्वी की निर्मम हत्या हुई थी… तबसे उसकी आत्मा यहां भटक रही है।” मतलब पचास साल हो गए, और आत्मा अभी भी निकलने वाला मूड नहीं बना पाई! इतने सालों में उसे कोई आत्मा विकास केंद्र न मिल पाया।

 

ये फिल्मी आत्माएं भी पुरानी हवेलियों में ही क्यों भटकती हैं? रेलवे स्टेशन, नए नए खुल रहे एयर कंडीशन मॉल या बिजली विभाग के दफ्तर में क्यों नहीं दिखतीं? शायद वहां डराने से पहले ही उन्हें टिकट या बिजली बिल भरना पड़ता हो।

पुरानी एवरेडी वाली टार्च की रोशनी में जब बुजुर्ग चौकीदार खड़खडाहट की तरफ रोशनी डालता है तो काली बिल्ली नजर आती है ।

भूत भी इतने सभ्य होते हैं कि हमेशा रात का ही इंतजार करते हैं। दिन में अगर कोई डरावना सीन हो जाए तो सेंसर बोर्ड शायद उस भूत की नागरिकता रद्द कर दे। और जब भूत आता है, तो कैमरा ज़ूम इन करता है—तीन बार, तीन एंगल से—मानो भूत की कोई इंस्टाग्राम रील बन रही हो! कुछ फिल्मों में तो भूत खुद को इतना स्टाइलिश दिखाते हैं कि लगने लगता है जैसे वो कोई ब्यूटी पार्लर  से निकलकर सीधे शूट पर आए हों। बाल लहराते हुए,भूरी आंखों में काजल, और चाल में स्लो मोशन-भूत कम, फैशन शो के प्रतिभागी अधिक लगते हैं।

नायक या नायिका अकेले किसी कोठरी में जाता है, और वहां दीवार पर खून से लिखा होता है—“भाग जा!” लेकिन वो उल्टा पूछता है, “कौन है?” अरे, लिखा है भाग जा, तो भाग! पर हॉरर फिल्म का राइटर पंगा लेता ही है।

ओझा या तांत्रिक की एंट्री होती है,  मनोरंजन डबल , इस बीच एक गाना सैट हो जाता है। बाबा लोग हमेशा काले कपड़े  में आते हैं ।

अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती है। आत्मा भी मानो स्क्रिप्ट पढ़कर आई हो, बड़बोले बिना समझे मंत्रों के साथ अग्नि में विलीन होकर मुक्त हो जाती है। दर्शक के सिर से बोझ उतर जाता है, और पास से रुपए । समय के साथ कुछ फिल्मों ने थोड़ा मॉडर्न टच दिया है। अब भूत व्हाट्सऐप पर भी दिखने लगे हैं। कोई कोई भूत चैट पर “I am watching you” जैसा मैसेज भेजता है। भूत भी डिजिटल हो गए हैं, अब डराने के लिए टिकटॉक ट्रेंड नहीं, इंस्टा फिल्टर यूज़ करते हैं। बहरहाल डर वह भाव है जो बिकता है, बस कोई हॉरर फिल्म बना सके तो।(विनायक फीचर्स)

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