स्त्रियां बहुत ही अलग होती हैं
सुबह उठती है तो नींद में
नींद में ही भागती है
चक्कर घिन्नी की तरह इधर-उधर
बुनती है चूल्हे के पास रोज नई कविताएँ
घर के आँगन में बो देती है आशाएं
संभालने की कोशिश में लगी रहती
जो बिखरा रहता हैं इधर उधर
सबके करीब होने की जद्दोजहद में
खुद से बहुत दूर हो जाती है।
स्त्रियां बहुत ही अलग होती है
फिर रात को सोती हैं
पर नींद में भी जागती रहती हैं
टटोलती रहती है मुन्ने की रजाई
दरवाजे की कुंडिया
बच्चों की किताबें
रात की स्याही में लिखती हैं
रोज का रूपये पैसे का हिसाब
और पढ़ती हैं पति का मन।
स्त्रियां बहुत ही अलग होती है
मन को टिफिन में परोस देती हैं
सभी काम अधूरे छोड़ती है
बीच में ही चूल्हा छोड़
ढूंढने लग जाती है बच्चों के मोजे
कभी पति का पर्स और चाबियां
कभी कोई काम पूरा नहीं करती
कभी दूध को उबलता छोड़
ढूंढ़ती हैं बचपन के अधकचरे ख्वाब
अल्हड़ जवानी में खोए हुए पलाश।
स्त्रियां बहुत ही अलग होती हैं
सारा दिन गाने सुनने की करती कोशिश
पर बीच में ही छोड़ चली जाती है
बाहर दरवाजा खोलने
कभी खाना खाते-खाते उठ जाती हैं
याद आ जाता है फिर कोई काम
अरे प्लंबर को फोन करना था
भूल गई,आज बाई ने नहीं आना था
कही खो हो जाते वह सारे ख्वाब
जिन्हे बुनती थी सहेलियों के साथ।
स्त्रियां बहुत ही अलग होती है
सारा दिन भागती रहती हो
कोई भी काम पूरा नहीं करती?
टेक्नोलॉजी में बहुत पीछे हो
खाती है हर समय झिड़कियां
कभी बच्चों की ,कभी पति की
न शौक से जीती न ठीक से मरती
फिर भी हर पल मांगती दुआ प्रभु से
हो जाती हैं अलविदा इस दुनिया से
छोड़ जाती है बहुत कुछ अधूरा
स्त्रियां बहुत ही अलग होती है…।
– रेखा मित्तल, चण्डीगढ़