ये जीवन कितना अलबेला।
नित पगपग करता है खेला।
इत उत नित धाये अकुलाये।
यह नूतन करतब दिखलाये।।
मन दंभ द्वेष में इतराता।
रोता गाता दौड़ा जाता।
चिंतन में बीते पल सारा।
हरदम दौड़े मारा मारा।।
यह जीवन लगता बंजारा।
निस दिन धाये बन आवारा।
जीवन को उलझाये माया।
सुख दुख में लिपटा के काया।।
उलझन की ना कोई सीमा।
चित भाव चले जोरे धीमा।
व्याकुल मानव बस चितकारे।
जग देखे हरपल मन मारे।।
इस जीवन में जागे आशा।
सुख पाने की है अभिलाषा।
पाया खोया में हर ज्ञानी।
चाहत में उलझा है प्राणी।।
अब छोड़ जरा काया माया,
इसने सबको हो भरमाया।
बिचलित काहे जागो जागो।
अब राम भजन में जा लागो।।
– अनिरुद्ध कुमार सिंह
धनबाद, झारखंड