निभाती रही वो तो अपना, किरदार हर रोज,
बेच रही है खुद को सरे बाजार हर रोज।
आबरू की उसकी वह लगाता रहा कीमत,
और सजाते रहे नामचीन दरबार हर रोज।
उसका ही गणिका सिर्फ नामकरण क्यों हुआ,
उनका क्यों नहीं जो आते थे सरकार हर रोज।
भूख मिटाते रहे जो रईसजादे सजदे में उसके,
कहते रहे वो ही उसे गुनाहगार हर रोज।
उन्हीं के निशानी की निवाले की खातिर,
करती रही खुद पर अत्याचार हर रोज।
लुट जाना यूं बीच बाजार आसान नहीं होता,
करते रहे बच्चे उसका इंतजार हर रोज।
बांछें खिल जाती थी उसकी देख बच्चों की मुस्कान,
करती रही वह इस रंगमंच का आभार हर रोज।
– सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर