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पहली छुवन – अनुराधा पाण्डेय

क्या बताऊँ मौन वाणी,

भाव वर्णन से परे हैं,

प्रेम की पहली छुवन के….

शब्द बौने क्या भला ये ,

प्रेम के उपमान होंगे ।

लग रहा ज्यों शब्द में कुछ,

कह दिया तो म्लान होंगे।

मोक्ष जैसे भाव होते –

दो हृदय के शुभ मिलन के।

प्रेम की पहली छुवन के ।

 

भोर की पहली किरण या

जेठ में पावस झड़ी -सी।

या कि शैशव थाम ले कर ,

एक पावन फुलझड़ी-सी।

दृश्य ये भी हैं निमिष भर –

राग के उन अवतरण के

प्रेम की पहली छुवन के।

 

कार्य कारण से परे ये,

जड़ गणित कब मानते हैं।

नद्ध मन होते अकारण ,

प्रेम हठ जब ठानते हैं।

पूछ कर हैं कब महकते-

पुष्प अंतरतम विजन के।

प्रेम की पहली छुवन के।

 

जब मधुर वो लौ जली थी,

क्या कहूँ  कैसी लगी थी।

पारलौकिक वंद्य रस में,

आत्मा -मानो पगी थी ।

वंदना रत पूज्य हित थी-

नम्य शुचि रज थे चरण के।

प्रेम की पहली छुवन के।

– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका , दिल्ली

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