रीती-सी मैं
पता नहीं कैसी-सी हो गई हूँ मैं
न मैं बहुत खुश, न उदास
बस अंदर से रीती-सी हो गई हूँ,
चाहती हूँ चली जाऊँ कहीं दूर
न जान-पहचान, बैठी रहूँ अकेले
न बोलना, न सुनना
बस घंटों चुप रहना चाहती हूँ,
शायद जो बिखर गया वर्षों से
उसको समेटना चाहती हूँ,
जो अनसुलझा रह गया जीवन में
उसको सुलझाना चाहती हूँ,
छोड़ आई बहुत कुछ पीछे अपना
सब लौटा लाना चाहती हूँ,
बहुत से अनकहे रिश्ते
जो अभी अधूरे ही रह गए
बचपन की नादानियाँ
जवानी की अल्हड़ता
रिश्ते जो हाथों से फिसल गए
सबको वापस पाना चाहती हूँ मैं.
पर वक्त कहाँ किसका साथ देता हैं
निर्मोही केवल यादें ही देता हैं
गर पीछे लौटना होता इतना आसान
तो पकड़ती आज भी तितलियाँ मैं
करती जिद्द चाँद को छू लेने की
लौट बाबुल के घर-आँगन
लिपट माँ से भूल जाती सब
पता नहीं कैसी-सी हो गई हो मैं
बस अंदर से रीती-सी हो गई हूँ मैं .
– रेखा मित्तल, चण्डीगढ़