बसूँ साँसों में तेरी मैं सदा राधा सम ,
हरे तू विघ्न मेरा दीवानी मीरा सम।
है ये चाहत की रुक्मणी ही बनूँ तेरी,
नहीं चाहूँ कभी मैं वर छलिया मोहन सम।
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मेरे नागर तुझ पर ही सब है वार दिया,
मोहन तुमने तो कितनो को है तार दिया।
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माना धरती सम गोविन्द मुझ में धैर्य बड़ा,
और काया से तुमने मुझको इक नार किया ।
तेरी साँसों में कोई और बसे कैसे सहूँ,
तू किसी और को बाँहों में कसे कैसे सहूँ,। .
इससे बेहतर है कि बन जाऊँ जोगन मीरा,
और दुनिया की गरल यूँ सदा पीती रहूँ।
तुमने विष को जो मेरे फिर कर दिया सुधा,
फिर तो मेरी दूर हो गई केशव दुविधा।
और जगत से कहो गिरधर भला माँगू क्या,
किसी दूजे की करूँ चाहत यह है तो मुधा।
– सविता सिंह मीरा , जमशेदपुर