असमय
बिना वजह
कैसी धड़कन
उठती है मन,
करता है कोई स्मरण,
अनवरत बढ़ती जाती
सूझे ना कोई कारण
किससे पूछूँ
क्या पहनाऊँ आवरण
जैसे खींचे है कोई बंधन,
छूना चाहूँ गगन
खोल के सारे गिरह
उन्मुक्त करूँ विचरण
नहीं करनी प्रतियोगिता
ना चाहूं अब आऊँ प्रथम,
मेरे ही मन को मुझसे ही
होती महसूस कोई जकड़न।
आज खुद को मुक्त किया
मन थोड़ा सा रिक्त किया,
आज थोड़ा आलस ही सही
मुंबई की लोकल ट्रेन की तरह
थकती नहीं क्या कभी,
छोड़ दे यह बिस्तर बिछौने
ले ले कुछ देर और अंगड़ाई,
तेरा ही तो है घर द्वार
फिर काहे की घुड़दौड़ लगाई?
थोड़ा अस्त-व्यस्त ही सही
तुझे किस की चिंता
जब से यह सब मन में आया
बस फिर क्या, अब असमय अकारण
नहीं बढ़ती धड़कन,
प्रतियोगिता से दूर निश्चिंत
स्वतंत्र, करती वही जो चाहे मन,
अब है मुझे यही पसंद
नहीं आना अब मुझे प्रथम
कलम मेरी अब मेरे संग
जिंदगी के कुछ हसीन छण
करना कैद अपने मन।
– सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर