ठाकुर ! तेरे दो नयन, दोनोँ प्रणयागार।
इक में थिर वृष भानुजा, दूजे में संसार।।
मुखपोथी चौसर बना, फैली मध्य बिसात।
रङ्ग बिरंगी गोटियां, खेलों भर औकात।।
दो पग आगे तुम धरो, दो पग धारूँ साथ।
दो दो पग धरती रहूँ, जनम- जनम धर हाथ।।
व्रात्य विमोही, दो नयन, दोनों नौकाकार।
मारण सम्मोहन करे, करें तीक्ष्ण मदवार।।
पानी का ज्यों बुलबुला, तेरा मेरा साथ।
अचिर नचिर सब जानकर,थामा फिर भी हाथ।।
सघन अनुरक्तियों के वे विरल क्षण आ लिपट जाते ।
नयन में मूर्त हो जाती, विगत अनुभूतियाँ प्रियतम !
लिखती थी तब की बात अलग, हर बात ग़ज़ल, तब तुम थे न ?
सजती थी सन्ध्या के आते, हर रात ग़जल, तब तुम थे न?
बातों-बातों में कटती थी, तब जग-जग कर मधुरिम रातें—
शबनम हर प्रात टपकती थी, हर पात ग़ज़ल, तब तुम थे न?
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली