आँखें मींचे दे रहे क्यों,
प्रीत का अवदान मुझको ?
चल रहे हो प्रेम पथ पर ,
क्या समझकर प्राण पन से ?
क्यों तुझे रुचिकर न लगता ,
और कुछ भी प्रेम धन से ?
मूल क्या है इस लगन का…
कुछ नहीं अनुमान मुझको।
प्रीत का अवदान मुझको?
एक टक बस देखते हो ,
शब्द बिन कुछ भी उचारे ।
सार क्या है इस जलन में,
जल रहे क्यों बिन विचारे ?
लग रहा ज्यों कर रहे हो …
मौन शर संधान मुझको ।
प्रीत का अवदान मुझको?
स्वार्थ मय इस जड़ जगत में,
रीत ऐसी तो न देखी ।
लग रहा मुझको अलौकिक,
प्रीत ऐसी तो न देखी ।
दृश्य जग में लग रहा तू…
नेह का प्रतिमान मुझको ।
प्रीत का अवदान मुझको?
मोक्ष भी अब तो न माँगू,
मुक्ति कबके पा गई मैं ।
पा गई अपवर्ग तुझसे,
धन्य ! तुझको भा गई मैं ।
कर समाहित सद्य निज को
मानते भगवान मुझको ।
प्रीत का अवदान मुझको?
– अनुराधा पाण्डेय , द्वारिका , दिल्ली