केहू से अब आस का, मन में उठें उफान।
दुनिया अपना रंग में, भाव शुन्य ईमान।।
आगा पाछा देखलीं, जीवन लगे विरान।
हर कोई चिंतित लगें, तन में अटकल प्रान।।
भागदौड़ लागल सदा, रात-दिन परेशान।
भूख सतावे हर घड़ी, आफत में बा जान।।
गगन धरा के बीच में, भटकत बा इंसान।
झाँकेला नींचे उपर, खोजेला भगवान।।
झूठा सांचा बोलके, चेहरा पे गुमान।
लोभ-लाभ में फंस के, लागेला अंजान।।
अंत सबे के एकबा, तन माटी सामान।
जीये केबा चार दिन, सोंच तनीं नादान।
– अनिरुद्ध कुमार सिंह, धनबाद, झारखंड