बरखा लउटि लउटि कै आवति, रूप प्रचण्ड देखाय रही,
बाढ़ और जल भराव ते, सबका जिउ डेरवाय रही।1
बिन बरखा के निकसा असाढ़, बदरा द्याखै का मन तरसा,
सावन भर लुका छिपी किहिस, भादौं मा सब बुडवाय रही।2
पहिले सूखा तौं हालति भै, सब खेतिहर का जिउ डेरान,
फिर गरजन तरजन करि बरसै, फसलैं आजु डुबाय रही।3
कहुँ पेड़ गिरे, गिरिगे मकान, कठिनाइन का अंत नहिन,
सड़कैं डूबीं, कुछ पुल बहिगे, मोटर तक उतराय रही।4
कजरी सोहर का भूलि सबहिं, त्राहि-त्राहि सब बोलि रहैं,
भजन मंडली अब दे’उतन का, कातर होय मनाय रही।5
बहु पेड़ कटे, गुम अब जंगल, परबत की छाती जो रउँदै,
तब रूप बिकट धरि कै धरती, सबहिन अउकात बताय रही।6
है बखत बचा अबहूँ सँभरौ, सब कारस्तानी बंद करौ,
बहुरंगी रूप धरै परकति, हम सबका आजु चेताय रही।7
भोगि रहा बहु भाँति मुला, फलु अपनी करनी का मनई,
बारिश सूखा भूकंप अगिनि, अब त्राहिमाम करवाय रही।8
छर-छंद छाँणि सीधे रस्ते, धरती वासी अब लउटि चलौ,
संकेतन ते दुनिया भर का, पृथ्वी फिरि-फिरि समझाय रही।9
– कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, नोएडा,उत्तर प्रदेश