यकायक
किसी बात पर
अनबोला सन्देह
दिखा कर
पूछ लेते हो
लगाकर एक
चिन्ह प्रश्नवाचक का
क्यूं……..?
सोच मे पड
जाती हूँ
हूँ मैं कौन ?
एक
सन्देह स्थली
तुम्हारे लिए…
एक
विचार यात्री
विचारों की
बैलगाड़ी का…
या
एक
संस्कार यात्री
बंधी हुई
संस्कारों से..
रखा है जिसके
कंधो पर जुआ…
उस बैलगाड़ी का…
हूँ मैं कौन ?
वो डोरी जो
रखना चाहती है
बाँधकर तुमको
मुझसे…
और करती हुई
एक अनबोली सी
कोशिश
बाँधने की अपनो को
खुद से….
बीत जाता है
पूरा दिन इसी सोच मे
और घिरने लगती है
रात घनघोर
कोहरे की तरह…
निकल आता है फिर
सूरज भी…
चलती रहती
हिचकोले लेती…
विचारों की बैलगाड़ी…
बीते कल के उस ढर्रे की तरह…
पर नही जान पाती हूँ
मैं हूँ कौन?
….. सुनीता मिश्रा, जमशेदपुर