दिल की चाहत को यारा भुला किसलिए,
चाँद सा रूप तेरा खिला किसलिए।
दर्द तूने हमे अब दिया किसलिए,
प्यार हमसे किया तो दगा किसलिए।
घर पे आकर ये माथा झुका किसलिए,
यार तू ही बता तू हँसा किसलिए।
क्यो करे हम भरोसा तलबगार का,
हो रहे तुम सनम अब खफा किसलिए।
साथ तेरा न छूटे कभी यार अब,
फिर बता हो रहा फासला किसलिए।
रात दिन हम दुआ माँगते खैर हो,
हो रहे तुम खफा अब बता किसलिए।
काटता पेड़ अब नासमझ आदमी।
बरगदों का बढ़ा दबदबा किसलिए।
– रीता गुलाटी ऋतंभरा, चंडीगढ़