बुनकर तुझको मैं फली फूली
चलो ना कुछ बुन लूँ ,
और कुछ चुन ही लूँ ,
कर लूँ कुछ एकत्र,
बो दूँ खाद मिट्टी में
उसे यत्र तत्र !
अंकुरित होंगे जब रिश्ते,
सीचूँगी फिर नेह जल से,
सहेजूँगी भर कर अंजूरी में
ताकि वह हँस कर खिले !
अरु जब आएंगे अलि
भर लूँगी पार्श्व में,
प्रीत का मकरंद ले
वह उड़े अकाश में !
फूलों की पंखुड़ी से
फिर ज़ब बनेंगे बीज
मिलकर वह मृदा में
बनाएंगे वृहत वृक्ष !
क्रमशः चलते रहना
ही उसका स्वरूप
लहराएंगे वह फिर से
उकेरेंगे अपना रूप !
हम भी कुछ बुन लें
संग कुछ चुन ले
स्नेह लेप की मृदा से
बना लें एक वृक्ष !
फिर उसकी छाँव तले
चल सब फिर मिले,
फिर कैसी तपिश
काहे की हो धूप,
जड़ों की जमीं पे
हो पकड़ मजबूत !
– सविता सिंह मीरा , जमशेदपुर