खुशी से प्रेम सबको है मगर वह दूर रहती है,
न मैं छल, स्वार्थ से मिलती यही वह बात कहती है।
करे प्रेषित चमक धन की खुशी की आँख में तम को,
तभी रूठे खुशी उससे नहीं धन भार सहती है।
खुशी को ढांक लेता है उजाला ज्ञान का अक्सर,
सहज उल्लास के बिन वह हृदय उसका न गहती है।
रखे जो मित्रता आलस्य से दुत्कारता श्रम को,
न हो आशा लगन तो लक्ष्य की दीवार ढहती है।
जहाँ सम्मान से सज्जित रहे ममता हमेशा ही,
उसी घर देश में हरदम खुशी की धार बहती है।
— मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश