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कैसा खेल है – अनिरुद्ध कुमार

कोई नहीं किसी का जग में, दुनिया ये बेमेल है,

सूरज चंदा जुगनू तारा, भोर रात बस खेल है।

स्वांस ताल पे दुनिया नाचे, रोज नया अठखेल है,

तन के अंदर बोले सुगना, यह जीवन तो जेल है।

 

आना जाना रोना गाना, पाना नहीं अधेल है.

बंद आँख इस जग से जाना, ज्ञान ध्यान सब फेल है।

आना जाना सदा अकेले, कष्ट क्लेश बस झेल है.

अपनी ढ़फली आप बजाओ, कहाँ किसी में मेल है।

 

बेचैनी में रहता प्राणी, चिंता लगे नकेल है,

समय ताल पें कूदें फाँदे, दौड़े मानों रेल है।

आकुल ढ़ूंढ़े रोज किनारा, लागे राह कटेल है,

व्याकुलता में बोल न पाये, पग-पग कैसा खेल है।

– अनिरुद्ध कुमार सिंह, धनबाद, झारखंड

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