जीवन में मुझको मिले, ऐसे लोग विचित्र ।
काँधे मेरे जो चढ़े, खींचे खुद के चित्र ।।
जैसी जिसकी सोच है, वैसी उसकी रीत ।
कहीं चाँद में दाग तो, कहीं चाँद से प्रीत ।।
ये कैसी नादानियाँ, ये कैसी है भूल।
आज काटकर मूल को, चाहें कल हम फूल।।
पद-पैसों की दौड़ में, कर बैठे हम भूल ।
घर-गमलों में फूल है, मगर दिलों में शूल ।।
जब तक था रस बांटता, होते रहे निहाल ।
खुदगर्जी थोड़ा हुआ, मचने लगा बवाल ।।
चूहा हल्दी गाँठ पर, फुदक रहा दिन-रात ।
आहट है ये मौत की, या कोई सौगात ।।
अपनों के ही दर्द का, नहीं जिन्हें आभास।
उनमें होकर भी नहीं, होने का अहसास।।
-डॉ. सत्यवान सौरभ, उब्बा भवन, आर्यनगर,
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