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गीतिका – मधु शुक्ला

अहं से मैं नहीं दृग चार करती हूँ,

सदा सब से मधुर व्यवहार करती हूँ।

 

नहीं है ज्ञात जीवन शेष है कितना,

न कोई पल तभी बेकार करती हूँ।

 

पिता, माँ, गुरु बिना होती न बनती मैं,

झुकाकर शीश को आभार करती हूँ।

 

हुआ है लेखनी से प्यार तब से मैं,

नवल नित छंद की बौछार करती हूँ।

 

कपट, छल दान रिश्तों से मिले फिर भी,

समझ अपना उन्हें मैं प्यार करती हूँ।

— मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश

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