बड़ी बेसब्र होकर
अपनी शख्सियत तलाशती हूँ
आईने के रूबरू जब खुद को पाती हूँ!
कहाँ छोड़ आई हूँ खुद को
ये सवाल अतीत से करती हूँ
सोये हुए अरमानों से
ये सवाल बार- बार करती हूँ!
एक चंचल नदी थी जो
आज खामोश सी ही गयी है
जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते
अपना वजूद ही खो चुकी हूँ!
‘अरमान’ है इस दिल के भी
शायद भूल चुकी हूँ मैं
मकान को घर बनाते – बनाते खुद को
भूल चुकी हूँ मैं!
रिश्तों का एक हुजूम जो चलता था
साथ -साथ
जरूरत के साथ उनके मायने बदल गये
आज उन्हीं रिश्तों की गर्माहट ढूंढती हूँ
जो नहीं दिखती अब
इर्द-गिर्द कहीं भी!
लेकिन तलाश अब भी जारी है
मिल सके सकूं के पल
इन्हीं रिश्तों में कहीं?
आईने के सवालों का जवाब देना चाहती हूँ
खुद आईना बनकर मैं।
– राधा शैलेन्द्र,