खोई-खोई आँखे सुर्ख रुखसार है,
देख रूखे-जानां दिल बेकरार है।
रुख पे लट आँखों में मदहोशी,
रब जाने किसकी तलबगार है।
सुर्ख लब हल्का सा तबस्सुम,
मिज़ाज़े-दिल आज बे-ऐतबार है।
मदभरी शरबती झिल सी आँखे,
नज़रे झुका रही बार-बार है।
झूकी नज़र अबरू की कमाने,
ह्या-औ-अदब सलीका बेशुमार।
सर से पाँव तक लगे कयामत,
देख हुस्ने-यार दिल जार-जार है।
सोचा तो सोचते रह गए निराश,
किसके नसीब में ये गमख्वार है।
– विनोद निराश , देहरादून