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सुदृढ़ होता ही गया – अनुराधा पाण्डेय

प्रिय ! तुम्हारे द्वार भूले अब न आऊँ

मैं तुम्हारी भांति ही व्याकुल पथिक हूँ..……

 

है प्रणय का पंथ माना कंटकित

हार मानूँ किन्तु यह संभव नहीं है।

धूल से धूसित भले हैं पाँव लेकिन

वंद्य इनसे और कुछ वैभव नहीं है ।

क्षण न प्रिय ! मैं रुद्ध या चिंतित थकित हूँ ।

मैं तुम्हारी भांति ही व्याकुल पथिक हूँ……

 

कोटि झंझा नित्य आती लौटती भी ,

वेग पग के कम न होते बढ़ रहे हैं ।

धार के विपरीत चलती नाव मेरी ,

नित प्रणय इतिहास नूतन गढ़ रहे हैं ।

क्षण न विस्मृत याद होती, खुद चकित हूँ ।

मैं तुम्हारी भांति ही व्याकुल पथिक हूँ……

 

सत्य है जब तुम न होते, नैन बहते ,

किन्तु आँसू प्रेम के श्रृंगार होते ।

प्रीत दर्पण देखती हूँ ,हर रुदन पर,

द्रृष्ट्य तुम होते, नयन रतनार होते ।

धुर विरह में भी न साजन मैं व्यथित हूँ ।

मैं तुम्हारी भांति ही व्याकुल पथिक हूँ……

– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली

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