मनोरंजन

सुरता बर नंगत गठियावत हे – सुरेश बन्छोर

सिरतोनहेच आवत ले पितर खेदा,

खाबोन तेलई बईठ ये बरा, बबरा।

हमन पुरखा ल सुरता करत संगी,

पाटत हन जीयत नी भरे ते ड़बरा।

ऊँखर आये के ओखी ये उदिम हे,

काबर सुनाथे लईका मुँह अखरा।

पुरखा जम्मों घला सरग ले सुनथे,

भाई ओखरो दिमाग जथय चकरा।

गुनथैंय अवईया सौ बछर ये पहुना,

घर ले निकारिहैंय डोकरी-डोकरा।

काबर रे चेलिक ईंखर मईंता हर तो

अभी ले देखे सुने लागत हे संकरा।

तेखर ले मिलत हे त खा लेथन बैरी,

तहाँ कोन ल देखाबो पितरहा नखरा।

अभी हमर बेटा-बेटी सवांगे बिलापे,

ऊँखर बाद भूईयाँ झाँकना हे खतरा।

अभी पितर पाख मनई के ये हाल हे

अवईया बछर के झन करन आसरा।

फेर अभी पितर पाख के दुरगती,

हमर पितर आपस म ये गोठियावत हे।

कम-से-कम अभी बनत हे बरा, बबरा,

तऊन ल सुरता बर नंगत गठियावत हे।

– सुरेश बन्छोर

हथखोज देमार, (पाटन)

तालपुरी, भिलाई (छ.ग.)

Related posts

बीस वर्ष – सविता सिंह

newsadmin

ग़ज़ल (हिंदी) – जसवीर सिंह हलधर

newsadmin

गजल – रीता गुलाटी

newsadmin

Leave a Comment