साँस मेरी अब चली है व्यर्थ में ।
जिंदगी जीती चली बिन अर्थ में।
दर्द सारे मैं तुम्हारेे ले रही-
गागरी खुशियाँ भरी मैं दे रही।।
मौन को धारण धरे , बीती सदी।
दुख भरी अब जिंदगी ,मेरी बदी।
राह में फिर से अकेला कर चले-
यूँ न अब निष्प्राण मुझको कर भले।।
वेवजह की बात से तकरार है।
जिंदगी मिलती कहाँ हर बार है।
छोड़ छोटी सी अहम जीते सभी-
चाह है अनुराग की मीते..! तभी।।
– अर्चना लाल, जमशेदपुर , झारखण्ड