जब याद अकिंचन हो जाए
औ मिले न उर को, ठौर कहीं
तब, दग्ध हृदय से गुनना तू
मेरे हिय पर क्या बीत रही?
जब भाप न पाए मन तेरा
गति से आती मादक विपदा ।
तब क्षुधित हृदय को मथना तू…
मेरे हिय पर क्या बीत रही?
जब गीत रहित तेरे मुख पर
मधुमास भरा उन्माद उठे ।
मेरी धड़कन से सुनना तू….
मेरे हिय पर क्या बीत रही?
पग-पग पर बिखरे शूलों से
क्या चुभन मिली क्या क्लेश हुआ ?
समझेगा उनको चुनना तू
मेरे हिय पर क्या बीत रही?
इक स्वप्न न सच में जी पाई ,
सब रहे निरंतर छिन्न- भिन्न ।
जानेगा जब खुद बुनना तू
मेरे हिय पर क्या बीत रही?
– अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली