ज़िंदगी कम तबाह थोड़े ही है,
हम पर वो निग़ाह थोड़े ही है।
याद आती है शब् भर उनकी,
बात बताना गुनाह थोड़े ही है।
दर्दे-दिल उभर आया लबों पे,
पर इतना बे-पनाह थोडे ही है।
रात कैसे कटी ये मुझसे पूछो,
तन्हा चाँद गवाह थोड़े ही है।
शबे-फुरकत भी गुजर जायेगी,
दूर सहर की राह थोड़े ही है।
कई बार टूटा ये दिले-निराश,
मगर उसे परवाह थोड़े ही है।
– विनोद निराश, देहरादून