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मेरी कलम से – मीनू कौशिक

प्रकृति  भी   हुई   दुश्मन , विधाता  हो   गया   बैरी ।

बनी  क्यारी  समंदर, खेत  की , जाती  फसल  तैरी ।

है दोषी कौन ,क्या समझें, समझकर भी समझ  हारी,

ब्याज  पर  ब्याज  कर्जें  की , चुकाने  में   हुई  देरी ।

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सुन  मेरी माँ की हैं ये दुआएँ ,जिनसे डरती हैं  सारी बलाएँ

माँ की ममता को न आजमाना ,इसमें बसती रुहानी हवाएँ

वो भले छोड़कर इस जहाँ को,कृष्ण के धाम में जा बसी है ,

है यकीं आज भी संग मेरे ,हर घड़ी उसके दिल की दुआएँ

– मीनू कौशिक ‘तेजस्विनी’, दिल्ली

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