देखूं उसे अंजाना सा लगे है ,
सोचूँ उसे बेगाना सा लगे है।
ये अधखुली सी उनींदी आंखें,
राह-ए- मयखाना सा लगे है।
वो सुर्ख लब मानिंद-ए-कँवल ,
लबरेज़ कोई पैमाना सा लगे है।
आवारा बिखरी जुल्फे कांधों पे,
चाँद रुख-ए-जानां सा लगे है।
रुखसार मानिंद-ए-मखमल,
छुअन वो पहचाना सा लगे है।
हल्का तबस्सुम लब-ए-बाम ,
इश्क़ का फ़साना सा लगे है।
सुर्ख लिबास बदन पर उनके,
सामाने-क़ज़ा जाना सा लगे है।
शगुफ्ता चेहरा शफ्फाक बदन,
ईद का नज़राना सा लगे है।
सर से पाव मंज़र-ए-क़यामत,
निराश अफसाना सा लगे है।
– विनोद निराश, देहरादून