आज फिर मजबूर हो रिश्ते निभाने पड़ गए।
फिर नये दस्तूर अब दिल को सिखाने पड़ गए।
खुश रहेंगे हम सदा जब सोच पक्का कर लिया ,
जो खुशी-जरिया बना वह गम जलाने पड़ गए।
कम लगे उनको फिज़ा में खूबियां फैली यहाँ,
खामियां जो रोज वह सबकी जुटाने पड़ गए।
नोट था जब वह समूचा खर्च होता था नहीं,
हो गए कंगाल जब छुट्टे कराने पड़ गए।
जो बदा है ज़िंदगी में कौन ले सकता यहाँ,
बेवज़ह के डर सभी दिल से भगाने पड़ गए।
– शिप्रा सैनी मौर्या, जमशेदपुर